हिन्दी क्षेत्र में आन्दोलन के आधार स्तंभ :
स्वामी अछूतानन्द
स्वामी अछूतानन्द जी ‘हरिहर’ द्वारा चलाया गया आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र का प्रथम दलित आन्दोलन था, जो विशुद्ध रूप से सामाजिक और राजनीतिक था। इसका उद्देश्य समाज में जागृति और चेतना पैदा करना था। अपने आन्दोलनों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने साहित्य का भी सहारा लिया। आज यह साहित्यिक आन्दोलन हिन्दी दलित साहित्य आन्दोलन का नींव बन गया है। स्वामी जी हिन्दी के प्रथम दलित पत्रकार, संपादक एवं प्रेस संस्थापक भी थे, बता रहे हैं राज बहादुर
जुल्मों सितम को सहते, सदियाँ गुजर गई हैं।
अब तो जरा विचारो, सदियाँ गुजर गई हैं।
अपनी दशा सुधारो, सदियाँ गुजर गई हैं।
ये पंक्तियाँ उत्तर भारत में दलित आन्दोलन का शंखनाद करने वाले ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन के प्रवर्तक स्वामी अछूतानन्द जी ‘हरिहर’ की हैं।
स्वामी अछूतानन्द जी का जन्म 1879 ई. (बुद्ध पूर्णिमा) को जिला मैनपुरी, उत्तर प्रदेश के सिरसागंज तहसील के ग्राम उमरी में हुआ था।2 इनके बचपन का नाम हीरालाल था। इनके पिता का नाम मोतीराम था, जो फर्रूखाबाद के सौरिख गाँव के रहने वाले थे। लेकिन ब्राह्मणों से झगड़ा हो जाने के बाद ये अपनी ससुराल उमरी में आकर बस गये थे।3
स्वामी जी के पिता दो भाई थे- मोतीराम और मथुरा प्रसाद। ये दोनों ही भाई अंग्रेजों की फौज में सैनिक बन गये थे। अंग्रेजी फौज की विशेषता यह थी कि वहाँ शिक्षा के दरवाजे सभी के लिए समान रूप से खुले थे। अतः पिता और चाचा के फौज में होने के कारण स्वामी जी को प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने में कोई कठिनाई नहीं आयी। लगातार 14 वर्ष तक अंग्रेजी फौज के स्कूल में शिक्षा ग्रहण करते हुए उन्होंने अंग्रेजी और उर्दू का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया।
स्वामी अछूतानन्द जी का परिवार कबीरपंथी था। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव उनके चाचा मथुरा प्रसाद पर था। मथुरा प्रसाद जी अपने प्यारे भतीजे हीरालाल (स्वामी अछूतानन्द) को कबीर के पद गा-गा कर सुनाया करते थे। इसका हीरालाल पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। यही कारण था कि हीरालाल अपनी पढ़ाई के साथ-साथ साधुओं का सत्संग भी किया करते थे। मिडिल तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद हीरालाल ने लगभग 10 वर्षों तक साधु संतों के साथ रहकर देश भ्रमण किया और संस्कृत, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं का ज्ञान भी प्राप्त किया। हीरालाल अपने सत्संग प्रेम के चलते अक्सर अपने घर से बाहर ही रहा करते थे। उनकी इस प्रवृत्ति से तंग आकर घर वालों ने उनका विवाह करने का निर्णय लिया। इसके बाद इटावा निवासी राम सिंह कुरील की पुत्री दुर्गाबाई के साथ उनका विवाह हो गया।5 विवाहोपरान्त भी उनका सत्संग करने का कार्य जारी रहा।
स्वामी अछूतानन्द के समय में ‘आर्य समाज’ का प्रचार अपने जोरों पर था, जो जन्मना वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन कर रहा था। दलित जातियों पर इस आन्दोलन का पर्याप्त प्रभाव पड़ रहा था। स्वामी जी भी 1905 ई0 में आर्य समाजी संन्यासी सच्चिदानन्द के सम्पर्क में आये और उनके शिष्य बनकर आर्य समाज का प्रचार करने लगे।6 अब स्वामी जी ने अपना नाम बदलकर हीरालाल से ‘स्वामी हरिहरानन्द’ कर लिया। इस दौरान उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश ’और वेदों का गहन अध्ययन किया और 1912 ई0 तक आर्य समाज का प्रचार करते रहे। प्रचार कार्य के दौरान ही स्वामी हरिहरानन्द के साथ कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं, जिससे उनको अनुभव होने लगा कि आर्य समाज के संन्यासी और नेता भी ब्राह्मणवाद से ग्रसित हैं। इनका जाति-पाँति विरोधी आन्दोलन महज एक ढोंग है। इस प्रकार स्वामी जी का आर्य समाज से धीरे-धीरे मोहभंग होने लगा और अन्ततः उन्होंने आर्य समाज का त्याग कर दिया।
आर्य समाज का त्याग करने के बाद स्वामी हरिहरानन्द ने फिर अपना नाम बदलकर ‘हरिहर’ कर लिया। अब वे हरिहर के नाम से लोगों को आर्य समाज के ढोंग के बारे में बताने लगे। उन्हीं के शब्दों में :
वेद में भेद छिपा था, हमें मालूम न था।
हाल पोशीदा रखा था, हमें मालूम न था।।
‘मनु’ ने सख्त थे कानून बनाये ‘हरिहर’।
पढ़ना कतई मना था, हमें मालूम न था।।
इस प्रकार स्वामी जी 1912 से 1917 ई. तक आर्य समाज की कुटिल नीतियों का भंडाफोड़ करते रहे तथा साथ ही साथ उन्होंने कबीर, रैदास, गुरुनानक आदि संतों के वाणियों का अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने अनुभव किया कि वे ‘प्राचीन हिंद’ वाले हैं, जो विशुद्ध रुप से इस देश के मूल निवासी हैं। जिनका विदेशियों ने छल-प्रपंच से पतन किया है :
हम भी कभी थे अफ़जल, ‘प्राचीन हिंद वाले’।
अब हैं गुलाम निर्बल, प्राचीन हिंद वाले।।
इतिहास है बताता, है शुद्ध खून हमारा।
पर अब हैं शूद्र सड़ियल, प्राचीन हिंद वाले।।
बाहर से कौम आयी, बसने को जो यहाँ पर।
सब ले लिया था छलबल, प्राचीन हिंदवाले।।
अब आर्य समाजी स्वामी जी के घोर विरोधी हो गये। क्योंकि स्वामी जी ने उनके धर्मशास्त्रों वेद, पुराण, मनुस्मृति आदि पर सीधा हमला बोला था तथा उनकी शास्वस्तता की धज्जियाँ उड़ाकर रख दी थी। स्वामी जी के इस कार्य से बौखलाए एक आर्य समाजी उपदेशक कविरत्न पं. अखिलानन्द ने उन्हें आर्य सिद्धान्तों की सार्थकता एवं वेदों के शाश्वतता के मुद्दे पर शास्त्रार्थ को ललकारा। स्वामी जी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। फलतः 22 अक्टूबर, 1921ई0 को शहादरा (दिल्ली) में स्वामी जी और पं. अखिलानन्द के बीच शास्त्रार्थ हुआ। जिसमें स्वामी की विजय हुई।9 इस विजय से प्रसन्न होकर ‘शहदरा समाज दिल्ली’ के द्वारा उन्हें ‘श्री 108’ की उपाधि प्रदान की गयी। इस घटना के बाद स्वामी जी ने एक बार फिर अपने नाम में परिवर्तन किया और ‘स्वामी हरिहर’ में ‘अछूतानन्द’ जोड़कर अपना पूरा नाम ‘स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ कर लिया।10 आगे चलकर उन्होंने इसी नाम से कार्य किया और यही नाम लोकप्रिय हो गया।
‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन
स्वामी अछूतानन्द जी ने दलित समाज में जागृति लाने के लिए 1922 ई. में ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन की घोषणा की।11 ‘आदि हिन्दू’की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने ‘अछूत’का अर्थ ‘छूत विवर्जित’ अर्थात् ‘पवित्र’ बताया। उन्होंने बताया कि आर्यों ने यहाँ के मूल निवासी महाप्रतापी राजाओं को छल-बल से पराजित कर के उनका सब कुछ छीन लिया और उनकी हत्या कर दी। इसके बाद यहाँ के मूल निवासियों को शूद्र बनाकर उनकी संस्कृति को नष्ट कर दिया और अपनी सामंतवादी संस्कृति को स्थापित कर दिया। हम उन्हीं मूल निवासियों के सन्तान हैं। इसलिए हम आदिवंशी हैं। हमें अपने खोये हुए प्राचीन गौरव को इस देश में फिर से पाना है :नीचे गिराये पर ‘अछूते’, छूत से हम हैं बरी।
हम आदि हिन्दू हैं, न संकरवर्ण में हम हैं हरी।।
हैं सभ्य सबसे हिन्द के प्राचीन हैं हकदार हम।
हा-हा! बनाया शूद्र हमको, थे कभी सरदार हम।।
अब तो नहीं है वह जमाना, जुल्म ‘हरिहर’मत सहो।
अब तो तोड़ दो जंजीर, जकड़े क्यों गुलामी में रहो।।
स्वामी जी ने अपने ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए कई सभाएँ की। 1930ई0 तक स्वामी जी के नेतृत्व में इस आन्दोलन के आठ राष्ट्रीय अधिवेशन, तीन विशेष सम्मेलन और पन्द्रह प्रान्तीय सभाओं के साथ-साथ सैकड़ों की संख्या में जनपदीय सभाएँ हुईं। पहला वार्षिक अधिवेशन दिल्ली (1923) में, दूसरा नागपुर (1924), तीसरा हैदराबाद (1925), चैथा मद्रास (1926), पाँचवाँ इलाहाबाद (1927), छठा बम्बई (1928), सातवाँ अमरावती (1929) और आठवाँ (1930) में इलाहाबाद में हुआ। प्रान्तीय सभाएँ लखनऊ, कानुपर, इलाहाबाद, मेरठ, मैनपुरी, मथुरा, इटावा, गोरखपुर फर्रूखाबाद तथा आगरा में आयोजित हुई थीं। 13 इन सभाओं में हजारों की संख्या में दलित जातियों के लोगों ने गाँव-गाँव से पैदल चलकर भाग लिया था। तीन विशेष सभाएँ दिल्ली, मेरठ और इलाहाबाद में की गयी थीं। स्वामी जी अपनी इन सभाओं के माध्यम से समाज के लोगों को धर्म और राजनीति के बारे में बताते थे।
1928 ई0 बम्बई में ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन के राष्ट्रीय अधिवेशन में पहली बार स्वामी अछूतानन्द जी की भेंट बाबा साहेब डा. अम्बेडकर से हुई। दोनों नेताओं ने दलितों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पर अलग से भी देर तक विचार किया था। बाबा साहेब ने स्वामी जी को राजनैतिक लड़ाई में सहायता करने के लिए धन्यवाद दिया था, जिसे वे दलित वर्गों के राजनैतिक अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। उन्होंने बातचीत में इस बात पर भी जोर दिया था कि ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन को राजनीति में क्रान्तिकारी भूमिका निभानी है। उनका मत था कि राजनीतिक अधिकारों के लिए ऐसे सम्मेलन देश भर में किये जाने की जरूरत है, तभी सरकार पर दबाव बनेगा और दलितों की मांगे मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
स्वामी जी के इस आन्दोलन से जहाँ दलितों में एक नयी चेतना पैदा हो रही थी, वहीं इससे कांग्रेस और हिन्दुओं की नींद हराम हो गयी थी। स्वामी जी का आन्दोलन इन्हें पसंद नहीं आ रहा था। इसलिए इन लोगों ने स्वामी जी की जबरदस्त तरीके से निन्दा करनी शुरू कर दी तथा उन पर तरह-तरह के झूठे इल्जाम लगाकर उन्हें बदनाम करने की कोशिश की। लेकिन स्वामी जी इससे जरा भी विचलित नहीं हुए तथा पूर्व की भांति ही अपना आन्दोलन चलाते रहे। स्वामी जी को अपना लक्ष्य मालूम था। स्वामी जी को अपने आन्दोलन को आगे बढ़ाने में कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, इसके बारे में हिन्दी के महान दलित साहित्यकार चन्द्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने लिखा है- ‘द्विजातीय हिन्दू तो उनके शत्रु थे ही, अछूत भी डरकर भड़क जाते थे और अपने परम हितैषी स्वामी जी की कोई सहायता न करते। कभी चना चबाकर और कभी भूखे ही रहकर उन्हें सोना पड़ता और पैसा पास न रहने से कभी बीसों कोस उन्हें पैदल चलना पड़ता। परन्तु इन नाना कष्टों और दुःखों को सहते हुए भी वह कभी अपने ध्येय और सिद्धान्त से विचलित नहीं हुए। वह अपनी धुन के पक्के थे।
एक आला दिमाग था, न रहा,
आदिवंशी चराग था, न रहा।
स्वामी जी की मृत्यु के बाद उनका ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन नेतृत्व के अभाव में बिखर गया और दो गुटों में विभाजित हो गया। एक गुट कांग्रेस में शामिल हो गया तथा दूसरे गुट का बाबा साहेब अम्बेडकर की संस्था ‘शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन’में विलय हो गया। किसी भी समाज को जागरूक करने में साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। स्वामी जी की रचनाएँ द्विज जातियों के प्रेस में नहीं छप पाती थीं। इसलिए स्वामी जी ने ‘आदि हिन्दू प्रेस’ के नाम से अपना स्वयं का प्रेस कानपुर में स्थापित किया। ‘अपने इसी प्रेस से स्वामी जी ने 1925 से 1932 ई. तक ‘आदि हिन्दू’ मासिक पत्र का प्रकाशन किया। इससे पूर्व स्वामी जी ने 1922-23 में दिल्ली से दो साल तक ‘प्राचीन हिन्दू’ का भी सम्पादन किया था, जिसके प्रकाशक ‘देवीदास जाटव’ थे। यह हिन्दी क्षेत्र का पहला पत्र था, जो एक दलित द्वारा निकाला गया था। स्वामी जी हिन्दी की दलित पत्रकारिता के प्रथम संस्थापक, प्रथम संपादक, प्रथम मुद्रक, एवं प्रथम पत्रकार थे।’’17 अब स्वामी जी की साहित्यिक रचनाएँ इसी प्रेस से छपने लगी थीं और लोगों तक पहुंचने लगी थीं।
स्वामी जी का साहित्य
स्वामी जी की साहित्यिक यात्रा कविता से आरम्भ होकर नाटक पर समाप्त होती है। उनके काव्य संग्रहों में, ‘हरिहर भजन माला, ‘विज्ञान भजन माला’, ‘आदि हिन्दू भजनमाला’ एवं ‘आदिवंश का डंका’ का उल्लेख मिलता है वर्तमान में इन रचनाओं में से केवल ‘आदिवंश का डंका’ ही उपलब्ध है। ‘आदिवंश का डंका’लोक छन्दों में रचित कृति है, जिसमें कव्वाली, गज़ल, भजन, मरसिया आदि शामिल है। इस कृति के 1983 ई0 तक 11 संस्करण निकल चुके थे, जिससे इसकी लोकप्रियता का पता चलता है। ‘आदिवंश का डंका’कुल 21 कविताओं का संग्रह है, जिनमें गेयता की प्रधानता है। संग्रह के पहली कविता में ही गेयता के दर्शन होते हैं :
आदि हिन्दू का डंका बजाते चलो।कौम को नींद से अब जगाते चलो।।
इस पहली कविता से ही पता चलता है कि स्वामी जी की कविता साहित्यिक आन्दोलन के लिए नहीं बल्कि सामाजिक आन्दोलन के लिए लिखी गयी थी। स्वामी जी को दलित वर्ग को गांधी जी द्वारा दिया गया ‘हरिजन’ नाम बिल्कुल पसंद नहीं था। इसका उन्होंने तार्किक ढंग से कविता के माध्यम से तीखा विरोध किया।
कियो ‘हरिजन’ पद हमें प्रदान।
अन्त्यज, पतित, बहिष्कृत, पादज, पंचम्, शूद्र महान।।
हम हरिजन तौ तुमहूँ हरिजन कस न, कहै श्रीमान्?
की तुम हौ उनके जन, जिनको जगत कहत शैतान।।
स्वामी जी ने अपनी कविता के माध्यम से हिन्दूओं द्वारा पूजा पाठ के नाम पर किये जाने वाले ढोंग का भी पर्दाफाश किया :
राम कृष्ण की पूजा करके, चंदन तिलक लगाते हो।
किंतु कुकर्मों के करने में, नेक न कभी लजाते हो।।
‘इतिहास-ज्ञान’ गज़ल में स्वामी जी ने दलित समाज को उनके इतिहास के बारे में बताया है :
विदित संसार में हम आदि भारत के निवासी हैं।
यही इतिहासकारों ने सभी लिखकर बताया है।।
यहाँ मधि एशिया से आर्य बनकर शरणार्थी आये।
हमारा छीनकर घर-जर हमें बहु विध सताया है।।
‘मुनस्मृति से जलन’ नामक कव्वाली में उन्होंने ‘मनुस्मृति’ का कच्चा चिठ्ठा खोलते हुए हिन्दू कौम को शाप तक दे डाला है। यह बहुत ही मार्मिक गज़ल है तथा स्वामी जी की कविताओं में से सर्वाधिक चर्चित है :
निश दिन मनुस्मृति ये, हमको जला रही है।
ऊपर न उठने देती, नीचे गिरा रही है।।
ऐ हिन्दू कौम! सुन ले, तेरा भला न होगा,
जो बेकसों को ‘हरिहर’ गर तू रूला रही है।
स्वामी जी की कविताओं की यह विशेषता है कि ये हिन्दी की खड़ी बोली में सीधी एवं सरल भाषा में लिखी गयी हैं। इनका उद्देश्य दलित समाज में चेतना का संचार करना है। इन कविताओं में दलित चेतना के साथ-साथ पर्याप्त आक्रोश भी दिखायी देता है, जो कि स्वाभाविक ही है। प्रो. चमनलाल के अनुसार ‘‘स्वामी अछूतानन्द की कविता पारम्परिक रूप में रची कविता है, जो सोद्देश्य रचना में रची गयी है।
स्वामी अछूतानन्द जी द्वारा रचित एक खण्डकाव्य भी प्राप्त होता है, जो ‘आदि खण्ड’ नाम से है। इसमें दलितों के उत्थान और पतन के संक्षिप्त इतिहास का वर्णन है। यह खण्ड काव्य 1929 ई. में प्रकाशित है।24 इसमें लोककाव्य छन्द ‘आल्हा’ का प्रयोग किया गया है। इस खण्ड काव्य का आरम्भ सतगुरु स्वामी जी के स्मरण से होता है :
पहले सतगुरु स्वामी, दीन्हा लौकिक आतम ज्ञान।
ब्रह्म रूप चेतन घट-घट में, व्यापक सकल सृष्टि दरम्यान।।
स्वामी जी द्वारा लिखे गये दो नाटक मिलते हैं, जो क्रमशः ‘राम-राज्य न्याय’ और ‘मायानन्द बलिदान’ के नाम से हैं। ये दोनों नाटक लोकनाट्य के नौटंकी शैली में क्रमशः 1926 और 1927 ई. में लिखे गये हैं। 26 इन नाटकों के माध्यम से स्वामी जी ने हिन्दी में दलित रंगमंच स्थापित करने का क्रान्तिकारी काम किया। ‘राम राज्य नाटक’ में शूद्र ऋषि शम्बूक की कहानी है। शम्बूक ऋषि वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ दलितों को जागरूक करने का कार्य कर रहे थे। उनके इस कार्य को ब्राह्मणों ने अधर्म बताया और इस अधर्म का नाश करने के लिए तत्कालीन राजा राम को शम्बूक की हत्या करने का उपाय सूझाया। राम ने इसे तुरत स्वीकार किया और शम्बूक ऋषि के आश्रम पर जाकर उनकी हत्या करके अधर्म का नाश किया। यह नाटक जब दलित कलाकारों द्वारा रंगमंच पर खेला गया तो दलित जनता में भूचाल आ गया। उसे पहली बार तथा कथित भगवान राम की कारगुजारियों का पता चला।
स्वामी जी का दूसरा नाटक ‘मायानन्द बलिदान’ पूरी तरह से पद्य में लिखा गया नाटक है। यह नाटक हिन्दू संस्कृति में विद्यमान नरबलि प्रथा को रेखांकित करता है। इस नाटक की कहानी गुजरात प्रदेश की है, जहाँ 1300 विक्रमी संवत् में एक अछूत साधु ‘मायानन्द’ का जल प्राप्ति हेतु किये जाने वाले यज्ञ में बलि दे दिया गया। यह बलि वहाँ की राजशाही व्यवस्था द्वारा दी गयी थी जो पूर्णतया ब्राह्मणशाही से संचालित थी। इस नाटक से यह भी पता चलता है कि ब्राह्मणों का सांस्कृतिक साम्राज्यवाद किस तरह दलितों को अपना शिकार बनाता था।
वस्तुतः स्वामी अछूतानन्द जी ‘हरिहर’ द्वारा चलाया गया आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र का प्रथम दलित आन्दोलन था, जो विशुद्ध रूप से सामाजिक और राजनीतिक था। इसका उद्देश्य समाज में जागृति और चेतना पैदा करना था। अपने आन्दोलनों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने साहित्य का भी सहारा लिया, जिससे जाने-अनजाने एक साहित्यिक आन्दोलन का भी विकास होता रहा। आज यह साहित्यिक आन्दोलन हिन्दी दलित साहित्य आन्दोलन का नींव बन गया है। स्वामी जी हिन्दी के प्रथम दलित पत्रकार, संपादक एवं प्रेस संस्थापक थे। उनकी पत्रकारिता वर्तमान में हिन्दी दलित पत्रकारिता की आधार-स्तंभ बन गयी है। वे हिन्दी की खड़ी बोली के प्रथम दलित साहित्यकार भी थे, जिनकी रचनाओं में शिल्पगत प्रौ ढ़ता भी देखने को मिलती है। हिन्दी क्षेत्र में दलित रंगमच को स्थापित करने का श्रेय भी स्वामी जी को ही है। प्रो. चमन लाल के अनुसार, ‘‘स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ का साहित्य प्रकाश में आने से उनको हिन्दी में आधुनिक दलित साहित्य का जनक माना जा सकता है व हीरा डोम की कविता उनकी परवर्ती कविता कही जा सकती है।’’ 27 इस प्रकार स्वामी जी के कार्यों को देखते हुए उन्हें हिन्दी क्षेत्र के सामाजिक एवं साहित्यिक दलित आन्दोलन का आधार स्तम्भ कहा जा सकता है। उनके साहित्य एवं आन्दोलन की प्रासंगिकता तब तक बनी रहेगी, जब तक समाज में जाति के नाम पर भेदभाव होता रहेगा। इसलिए स्वामी जी की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है, जितनी कि उनके समय में थी।
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